जल्लीकट्टू तमिलनाडु का लगभग 2000 वर्ष पुराना पारंपरिक खेल है जो फसलों की कटाई के अवसर पर पोंगल के समय आयोजित किया जाता है।
यह खेल मुख्य रूप से मदुरै, तिरुचिरापल्ली, थेनी, पुडुकोट्टई और डिंडीगुल जिलों में लोकप्रिय है। इस कारण यह क्षेत्र जल्लीकट्टू बेल्ट के रूप में प्रसिद्ध है।
इस खेल में भारी भरकम साँड़ों के सींगों में नोट और सिक्के फँसा कर रखे जाते हैं।
इसके बाद इन साँड़ों को तेज दौड़ने के लिए भड़काया जाता है। भड़काने के लिए कई तरीके अपनाए जाते हैं जैसे--- शराब पिलाना, आँखों में मिर्च डालना, पूँछों को मरोड़ना आदि।
खेल के आयोजन से पहले वहाँ के लोग बैलों को खूँटे से बाँधकर उन्हें उकसाने का अभ्यास करते हैं।
2014 में उच्चतम न्यायालय ने पशुओं के प्रति क्रूरता के चलते जल्लीकट्टू को प्रतिबंधित कर दिया था।
2000 वर्ष पुरानी यह परंपरा योद्धाओं के बीच लोकप्रिय थी।
प्राचीन तमिल साहित्य में भी जल्लीकट्टू का उल्लेख विभिन्न नामों के अंतर्गत मिलता है।
यह खेल एक स्वयंवर की तरह होता था। जो योद्धा बैल पर काबू पाता था उसे महिलाएं वर के रूप में चुनती थीं।
खेल का नाम जल्लीकट्टू शब्द सल्लीकासू से बना है। सल्ली का अर्थ होता है सिक्का और कासू का अर्थ होता है सींगों में बँधा हुआ।
बैल के सींगों में बँधे हुए सिक्कों को हासिल करना इस खेल का उद्देश्य होता है।
जो प्रतिभागी बैल को वश में कर लेता है उसे विजेता घोषित किया जाता है अन्यथा बैल मालिक विजेता होता है।
खेल के शुरू होने पर 1-1 करके 3 बैलों को छोड़ा जाता है। ये सबसे बूढ़े बैल होते हैं। गाँव की शान के प्रतीक इन बैलों को कोई नहीं पकड़ता।
3 दिन तक इस खेल का आयोजन किया जाता है।
इस खेल के दौरान कई प्रतिभागी घायल हो जाते हैं तथा दुर्भाग्यवश किसी की मौत भी हो जाती है।
बैलों के प्रति हिंसक व्यवहार के कारण यह खेल अक्सर विवाद का विषय बना रहता है।
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